तंत्र के दो प्रमुख भाग होते हैं वाम मार्ग और दक्षिण मार्ग, वाम मार्ग ही वो रास्ता है या वो तरीका है जिसमें शव साधना, मदिरा पान, बलि प्रथा जैसे तत्व हैं, किन्तु तंत्र का दक्षिण मार्ग भी है, जो इन सब आडम्बरों से परे साफ सुथरा पूजन एवं क्रिया विधान है, इस तंत्र में धर्म के लगभग सभी अंगों का समावेश होता है, चाहे वो योग हो, चाहे मंत्र हो, स्तुति हो, ज्योतिष हो, आयुर्वेद हो,यन्त्र ज्यामिति हो,संगीत हो, भोजन या औषधि हो लगभग सभी अंग इसमें समाये हुए हैं|
तंत्र का सबसे बड़ा नियम होता है, नियमित साधना करो, असत्य से दूर रहो, हिंसा न करो, गुरु पूजा और इष्ट की पूजा में अधिक समय व्यतीत करो, साथ ही तंत्र की सबसे बड़ी चेतावनी ये है कि कोई भी मनघडंत प्रयोग बिलकुल न करो, क्योंकि वही विनाश का कारण बन जाएगा,
वाम शब्द का अर्थ बांया, स्त्री से संबंधित और उलटा है। यहां इसका अर्थ वामा अर्थात स्त्री से है। वाम मार्ग में स्त्री के सम्मान को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जो विभिन्न रूपों में मातृस्वरूप होती हैं। ऐसा माना जाता है कि बिना वामा की प्रसन्नता के, बिना उसके सहयोग के किसी भी कुल में कोई उच्चावस्था या सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती।
वाम मार्ग में जाति व्यवस्था को क्षुद्रता माना जाता है और स्त्री को शक्ति स्वरूपा। जाति से उठकर स्त्री को शक्ति स्वरूपा मानकर ही साधक उच्चावस्था को प्राप्तकर अपने लक्ष्य को पा सकते हैं, क्यों कि वाम मार्ग में स्त्री को जो सम्मान प्राप्त है, वह कहीं ओर प्राप्त हो ही नहीं सकता। विभिन्न जाति की महिलाओं को ऊर्जा / शक्ति अर्थात् सर्वोच्च शक्ति का रूप माना जाता है।
वाम मार्ग में साधक, स्त्री को वह पवित्रावस्था में हो या अपवित्रावस्था में, अपने जीवन और शरीर से अधिक महत्वपूर्ण और शक्तिवाहिनी मानता है।
वाम मार्गीय तंत्र में न तो जातियां ही महत्वपूर्ण हैं और न रंगभेद। इस मार्ग में मां के नौ रूपों में भिन्न भिन्न जाति की कन्याओं को सर्वोच्च शक्तिसंपन्न मां दुर्गा का रूप मानकर पूजा जाता है।
यह मार्ग अघोर मार्ग है। भगवान् शिव को अघोरेश्वर कहा जाता है। वाम मार्ग को भगवान् शिव का मार्ग भी कहा जाता है।
यह मार्ग प्रकृति के कृतित्व निर्माण के लिए जाना जाता है, इसके माध्यम से बिना किसी भ्रम के पुनरोत्पादन, पुनर्निर्माण, विकास और क्रियात्मकता का मार्ग खुलता है।
भगवान शिव जो खुद वाम मार्ग का अनुयायी कहा जाता है। वे अर्धनारीश्वर हैं, जिसका अर्थ है - जो आधा स्त्री हो और आधा पुरुष हो।
इस पथ का अनुयायी सब झंझओं से मुक्त हो जाता है और अघोरी शिष्य कहा जाता है, जो साधना के बल पर भगवान शिव के समान हो जाता है।
वाममार्गीय तंत्र साधना में परस्पर भागीदारी का महत्व
तंत्र की मैथुन प्रक्रिया में प्रत्येक अभ्यासी को अपने ऊपर ही निर्भर होना होता है जबकि सामान्य तौर पर पति और पत्नी के बीच का सम्बन्ध एक दुसरे पर निर्भर और स्वामित्व से भरा होता है. दूसरी समस्या तांत्रिक साधना में जूनून और जोश के अभाव को जागृत करना होता है जो कि बड़ा कठिन है .पुरुष ब्रह्मचारी इसलिए बन गया क्यूंकि उसके मन में उठने वाले काम के विचार और जूनून से वो बच सके और उस परिस्थिति में जब कोई महिला उसके साथ अभ्यासरत हो . दोनों अभ्यासियों को पूर्णतया शुद्ध और आन्तरिक और बाह्य रूप से नियंत्रित होना चाहिए जब वे तंत्र के मैथुन क्रिया का अभ्यास कर रहे हो . वास्तव में यह साधारण पुरुष और स्त्री के लिए समझना कठिन होगा क्यूंकि अधिकतर पुरुष और स्त्री कामक्रिया को शारीरिक और भावनाओ का आकर्षण और दोनों के शरीर से सुख की कल्पना के निमित यह कार्य करते है . और यह प्राकृतिक जरूरत या भावना तभी पूर्णरूप से विलोप हो सकती है इस काम क्रिया में जब अभ्यासी पूर्ण रूप से शुद्ध और तैयार हो . इसलिए वाम मार्ग की साधना करने से पूर्व दक्षिण मार्ग की साधना की सलाह बहुत से तांत्रिक सिद्धो ने दी है तभी मैथुन क्रिया शारीरिक जरुरत नहीं बन पाती है तंत्र में सिर्फ साधना बनती है।
1 comment:
प्रेमयोगी वज्र लिखता है, बहुत अच्छा ज्ञान लिखा है मित्र आपने. दिल खुश हो गया. मैंने इस पोस्ट को इस अनुभवात्मक तांत्रिक वेबपेज के साथ लिंक किया है- https://demystifyingkundalini.com/%E0%A4%97%E0%A5%83%E0%A4%B9-10/
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